बहुत
मज़बूत बन्धन है, इसे कमजोर मत कहना
बँधी
जो प्यार की डोरी, बहुत अनमोल वो गहना
रिवाज़ों
और रस्मों की, यहाँ परवाह है किसको
भले
अवरोध कितने हों, नदी का काम है बहना
ज़माने
के सितम के सामने, झुकना कभी भी मत
मुकद्दर
के थपेड़ों को, हमेशा प्यार से सहना
अमर
है आत्माएँ जब, तो क्यों है मौत से डरना
मुहब्बत
की रवायत है, सलीबों पर टँगे रहना
फिज़ाओं
का भरोसा क्या, न जाने कब बदल जायें
बड़ी
मुश्किल से गुलशन ने, बसन्ती “रूप” है पहना
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शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014
"ग़ज़ल-नदी का काम है बहना" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वाह !
जवाब देंहटाएंपहली पीढ़ी : -- हम जाति-धर्म को नहीं मानते
जवाब देंहटाएंदूसरी पीढ़ी : -- हम देसी- बेसी को नहीं मानते
तीसरी पीढ़ी : -- हम शादी-वादी को नहीं मानते
चौथी पीढ़ी : -- हम विवाहेत्तर सम्बन्धों को नहीं मानते
पाँचवी पीढ़ी : -- चलो मम्मी-पापा मम्मी -पापा खेलते हैं
छठवी पीढ़ी : -- अरे ये कुत्ता नहीं नहीं मनुष्य नहीं नहीं, अरे ये कुत्ते जैसा बालक किसका है.....?
प्रकृति का बासन्ती पदार्पण
जवाब देंहटाएंरिवाज़ों और रस्मों की, यहाँ परवाह है किसको
जवाब देंहटाएंभले अवरोध कितने हों, नदी का काम है बहना......
खुबसूरत ....
बहुत सुंदर सृजन,,,!
जवाब देंहटाएंRECENT POST - : बदले जो न ढंग.( दोहे )
फिज़ाओं का भरोसा क्या, न जाने कब बदल जायें
जवाब देंहटाएंबड़ी मुश्किल से गुलशन ने, बसन्ती “रूप” है पहना
..बहुत सुन्दर ..बसंती रंग का क्या कहना..यह तो प्रकृति का है गहना ..