नदिया-नाले सूख रहे हैं, जलचर प्यासे-प्यासे हैं। पौधे-पेड़ बिना पानी के, व्याकुल खड़े उदासे हैं।। चौमासे के मौसम में, सूरज से आग बरसती है। जल की बून्दें पा जाने को, धरती आज तरसती है।। नभ की ओर उठा कर मुण्डी, मेंढक चिल्लाते हैं। बरसो मेघ धड़ाके से, ये कातर स्वर में गाते हैं।। दीन-कृषक है दुखी हुआ, बादल की आँख-मिचौली से। पानी अब तक गिरा नही, क्यों आसमान की झोली से? तितली पानी की चाहत में दर-दर घूम रही है। फड़-फड़ करती तुलसी की ठूँठों को चूम रही है।। दया करो घनश्याम, सुधा सा अब तो जम करके बरसो। रिमझिम झड़ी लगा जाओ, अब क्यों करते कल-परसों? |
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सोमवार, 30 जून 2014
"सूरज से आग बरसती है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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हमेशा की तरह सुंदर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंकाले मेघा अब तो बरसो...सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना व प्रस्तुति , आदरणीय धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंमित्र ! अब कुछ स्वास्थ्य-लाभ हुआ है सो आज ही अंतर्जाल की सुविधा उपलब्ध होते ही सब की सेवा में उपस्थित हूँ !
जवाब देंहटाएंगीत में छायावाद व भौगोलिक परिवेश एक साथ हैं ! मच्छी रचना !
बारिश की दरकरार सबको है। .
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति