नभ में घन का पता न पाता।१।
जन-जीवन है अकुलाया सा,
कोमल पौधा मुर्झाया सा,
सूखा सम्बन्धों का नाता।
नभ में घन का पता न पाता।२।
सूख रहे हैं बाँध सरोवर,
धूप निगलती आज धरोहर,
रूठ गया है आज विधाता।
नभ में घन का पता न पाता।३।
दादुर जल बिन बहुत उदासा,
चिल्लाता है चातक प्यासा,
थक कर चूर हुआ उद्गाता।
नभ में घन का पता न पाता।४।
बहता तन से बहुत पसीना,
जिसने सारा सुख है छीना,
गर्मी से तन-मन अकुलाता।
नभ में घन का पता न पाता।५।
खेतों में पड़ गयी दरारें,
कब आयेंगी नेह फुहारें,
“रूप” न ऐसा हमको भाता।
नभ में घन का पता न पाता।६।
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शनिवार, 14 जून 2014
“गर्मी से तन-मन अकुलाता” (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वाह बहुत सुंदर ।
जवाब देंहटाएंखेतों में जब पड़ेगी दरारें, तभी तो आयेगी बहारें | गर्मी की ऋतु का सजीव चित्रण
जवाब देंहटाएंबहुत खूब लिखा है सर |
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसामयिक और सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा ज़ी |
जवाब देंहटाएंबढ़िया परिवेश प्रधान रचना।
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