जिन्हें पाला था नाज़ों से, वही आँखें दिखाते हैं।
हमारे दिल में घुसकर वो, हमें नश्तर चुभाते हैं।।
जिन्हें अँगुली पकड़ हमने, कभी चलना सिखाया था,
जरा सा ज्ञान क्या सीखा, हमें पढ़ना सिखाते हैं।
भँवर में थे फँसे जब वो, हमीं ने तो निकाला था,
मगर अहसान के बदले, हमें चूना लगाते हैं।
हमें अहसास होता है, बड़ी है मतलबी दुनिया,
गधे को बाप भी अपना, समय पर वो बताते हैं।
नहीं है “रूप” से मतलब, नहीं है रंग की चिन्ता,
अगर चांदी के जूते हो, तो सिर पर वो बिठाते हैं।
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गुरुवार, 5 जून 2014
"गधे को बाप भी अपना, समय पर वो बताते हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बढ़िया व सुंदर रचना , आदरणीय धन्यवाद !
जवाब देंहटाएं॥ जय श्री हरि: ॥
बढ़िया व सुंदर रचना , आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (06.06.2014) को "रिश्तों में शर्तें क्यों " (चर्चा अंक-1635)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
जवाब देंहटाएंक्या सर जी...बड़ा मखमल में लपेट के मारा है...जूता...कुछ ऐसा ही घट रहा है आजकल...सटीक...
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुभकामनायें आदरणीय-
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंvery well written...
जवाब देंहटाएंसटीक कटाक्ष !
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना शास्त्रीजी,यह दुनिया खुदगर्जों की है,ये याद रखना होगा
जवाब देंहटाएं