पहले देखा
फीलगुड, अब अच्छे का राज।
चेहरे की
रंगत उड़ी, देख अटपटा काज।
देख अटपटा
काज, बढ़ी फिर से मँहगाई।
ठगा गया
है आम, खास की है बन आई।
कह मयंक
कविराय, सोच की उभरी रेखा।
इतना बदतर
हाल, नहीं है पहले देखा।
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लेकर
कूँची हाथ में, खींच रहे हैं चित्र।
मतलब के संसार में, मतलब के हैं मित्र।
मतलब के
हैं मित्र, मित्रता का दम भरते।
आते जब
प्रत्यक्ष, प्रशंसा झूठी करते।
कह ‘मयंक’ कविराय,
उड़ानें भरते ऊँची।
भरते
कृत्रिम रंग, हाथ में लेकर कूँची।
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शनिवार, 21 जून 2014
"दो कुण्डलियाँ-बढ़ी फिर से मँहगाई" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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मतलब के संसार में, मतलब के हैं मित्र।
जवाब देंहटाएंमतलब के हैं मित्र, मित्रता का दम भरते।
आते जब प्रत्यक्ष, प्रशंसा झूठी करते। वाह वाह ....
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना
देख अटपटा काज, बढ़ी फिर से मँहगाई।
जवाब देंहटाएंठगा गया है आम, खास की है बन आई।
bahut badhiya
दोनों ही छन्द बिल्कुल सटीक....
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