मदहोश निगाहें हैं, खामोश तराना है
मासूम परिन्दों को, अब नीड़ बनाना है
सूखे हुए शजरों ने, पायें हैं नये पत्ते
बुझती हुई शम्मा
को, महफिल में जलाना है
कुछ करके दिखाने का, अरमान हैं दिलों में
उजड़ी हुई दुनिया
को, अब फिर से बसाना है
हिंसा की चल रहीं
हैं, चारों तरफ हवाएँ
आतंक की आँधी को, अब दूर भगाना है
फिरकापरस्त होना, मज़हब नहीं सिखाता
बन्धन को काट करके, अब धर्म सिखाना है
इस मादरे-वतन को, मक़्तल की जरूरत क्या
अब पाठ अहिंसा का, मक़तब में पढ़ाना है
इंसान आजकल का, हैवान बन गया है
इंसानियत का हमको, अब “रूप” दिखाना
है
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शनिवार, 9 मई 2015
ग़ज़ल "इंसानियत का हमको, अब रूप दिखाना है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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