जो समाज को
दिशा दे, वो ही है साहित्य।
दोहों में
मेरे नहीं, होता है लालित्य।१।
--
पहले पंजा
गर्व में, रहता था मग़रूर।
जनता ने अब कर
दिया, उसके मद को चूर।२।
--
आज हो गया कमल
भी, अपने मद में चूर।
जनता ही फिर
करेगी, भ्रम उसका भी दूर।३।
--
जनता के है
हाथ में, दल-दल की तकदीर।
धूल चाटते समर
में, बड़े-बड़े बलवीर।४।
--
होता वो
जनतन्त्र में, जो जनता को भाय।
दिल्ली में इक
तिफ़्ल को, कुर्सी दई थमाय।५।
--
रास न आया
किसी को, हाथ हो गया साफ।
तीन सीट में
कमल है, सढ़सठ में है आप।।
--
जनता धोखा खा
गयी, मान रही अब भूल।
फूलों के बदले
वहाँ, मिले आज हैं शूल।६।
--
अगले आम चुनाव
में, होंगे फिर बदलाव।
देखें किस दल
की यहाँ, पार लगेगी नाव।७।
--
जिह्वा पर
प्रभु नाम हो, लेकिन मन में खोट।
भाषण के बल पर
मिलें, जनता के अब वोट।८।
--
करें चाकरी
देश में, महासुभट विद्वान।
धनवानों की माँद में, बन्धक हैं गुणवान।९।
--
निर्धन-श्रमिक
किसान के, नहीं समय अनुकूल।
अभी दिखाई दे
रहा, मौसम भी प्रतिकूल।१०।
--
दिखा नहीं है
जेठ में, बदन जलाता घाम।
उमड़-घुमड़कर
आ रहे, गरमी में घनश्याम।।
--
सावन-भादों
में लगें, अच्छी हमें फुहार।
चौमासे में हे
प्रभू, कर देना उपकार।११।
|
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सोमवार, 18 मई 2015
दोहे "नहीं समय अनुकूल" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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