सबका अपना-अपना होता,
जीने का अन्दाज़ निराला।
अक्षर-अक्षर मिलकर ही तो,
बनती है शब्दों की माला।।
भाषा-भूषा, प्रान्त-देश का,
सम्प्रदाय का झगड़ा छोड़ो,
जो सीधे-सच्चे मानव हैं,
उनसे अपना नाता जोड़ो,
नभ जब सूरज उगता है,
लाता अपने साथ उजाला।
अक्षर-अक्षर मिलकर ही तो,
बनती है शब्दों की माला।।
पल में तोला, पल में माशा,
कभी हताशा कभी निराशा,
मन है प्यासा पंछी जैसा,
जिसकी बुझती नहीं पिपासा,
कभी न भरता इसका प्याला।
अक्षर-अक्षर मिलकर ही तो,
बनती है शब्दों की माला।।
पहन हंस की धवल केंचुली,
लगता बिल्कुल सीधा-सादा,
छल-फरेब के इस मूरत का,
समझ न पाये लोग इरादा,
विषधर तो विषधर ही होता,
काला हो चाहे पनियाला।
अक्षर-अक्षर मिलकर ही तो,
बनती है शब्दों की माला।।
“रूप” रंग का भूखा भँवरा,
गुंजन करता उपवन-उपवन,
सुमनों की सुगन्ध पाने को,
डोल रहा है कानन-कानन,
नटखट-निडर, रसिक सन्यासी,
झूम रहा बनकर मतवाला।
अक्षर-अक्षर मिलकर ही तो,
बनती है शब्दों की माला।।
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बुधवार, 13 मई 2015
गीत "जीने का अन्दाज़ निराला" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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