काट वनों को कोठियाँ, बना रहे सुग्रीव।
बस्ती में आने गये, जंगल के अब जीव।१।
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बुनने में संलग्न है, मानव अपने जाल।
इसीलिए तो आ रहे, बस्ती में भूचाल।२।
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देवदार औ’ चीड़ से, नंगा हुआ
पहाड़।
करने को कुछ सन्तुलन, शिवजी रहे दहाड़।३।
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बादल नभ में गरजते, ओलों की है मार।
लू के मौसम में बहें, शीतल मन्द बयार।४।
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आदत पल-पल बदलता, कलयुग में इन्सान।
देख हमारे ढंग को, बदल रहा भगवान।५।
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नरवध-गौवध देखते, होकर सब चुपचाप।
दीन-हीन का पड़ रहा, इसीलिए अभिशाप।६।
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पग-पग पर ही दे रहे, ईश्वर को सन्ताप।
स्वारथ के ही लिए तो, करते पूजा-जाप।७।
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नारी से संसार है, नारी नर की खान।
लेकिन फिर भी हो रहा, नारी का अपमान।८।
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जो रखती है हाथ में, ममता की पतवार।
उस जगदम्बा मात को, अबला रहे पुकार।९।
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जन-जीवन जीवित रहें, मिटे यहाँ अन्याय।
सबको करने चाहिए, मिलकर आज उपाय।१०।
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रविवार, 3 मई 2015
दोहे "बस्ती में भूचाल" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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