गरमी ज्यादा पड़ रही, जीवन है बदहाल।।
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सिर पर रख कर तौलिया, चेहरे पर रूमाल।
ढककर बाहर निकलिए, अपने-अपने गाल।।
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आग बरसती धरा पर, धूप हुई विकराल।
विकल हो रहे प्यास से, वन में विहग मराल।।
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दूर-दूर तक जल नहीं, सूखे झील-तड़ाग।
पानी की अब खोज में, उड़ते नभ में काग।।
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चहल-पहल अब है नहीं, सूने हैं बाजार।
व्यापारी दूकान में, रहे मक्खियाँ मार।।
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बिजली का संकट बढ़ा, पंखे-कूलर बन्द।
पंखा झलकर हाथ का, नहीं मिला आनन्द।।
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इस गरमी ने सभी का, छीन लिया चैन।
नहीं पसीना सूखता, तन-मन है बेचैन।।
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पेड़ आज कम हो गये, बढ़ा धरा का ताप।
आज सामने आ गये, जन-मानस के पाप।।
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रविवार, 31 मई 2015
दोहे "जीवन है बदहाल" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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