गौरय्या के गाँव में।
दम घुटता है आज महल की,
ठण्डी-ठण्डी छाँव में।।
नहीं रहा अब समय सलोना,
बिखर गया ताना-बाना,
आगत का स्वागत-अभिनन्दन,
आज हो गया बेगाना,
कंकड़-काँटे चुभते अब तो,
पनिहारी के पाँव में।
दम घुटता है आज महल की,
ठण्डी-ठण्डी छाँव में।।
परम्परा के गीत नहीं हैं,
अब अपने त्यौहारों में,
भुला दिये है देशी व्यञ्जन,
पूरब के आहारों में,
दबा सुरीला कोयल का सुर,
अब कागा की काँव में।
दम घुटता है आज महल की,
ठण्डी-ठण्डी छाँव में।।
घास-फूँस के माटी के घर,
अब तो नजर नहीं आते,
खेत-बाग-वन आज घरा पर,
दिन-प्रतिदिन घटते जाते,
खोज रहे हैं शीतल छाया,
कंकरीट की ठाँव में।
दम घुटता है आज महल की,
ठण्डी-ठण्डी छाँव में।।
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गुरुवार, 11 जून 2015
गीत "गौरय्या के गाँव में" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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