लखनऊ से प्रकाशित होने वाली
मासिक पत्रिका "जय विजय"
के मई-2015 अंक में
पृष्ठ-21 पर मेरी बाल कविता
"तरबूज"
जब गरमी की ऋतु आती है!
लू तन-मन को झुलसाती है!!
तब आता तरबूज सुहाना!
ठण्डक देता इसको खाना!!
यह बाजारों में बिकते हैं!
फुटबॉलों जैसे दिखते हैं!!
एक रोज मन में यह ठाना!
देखें इनका ठौर-ठिकाना!!
पहुँचे जब हम नदी किनारे!
बेलों पर थे अजब नजारे!!
कुछ छोटे कुछ बहुत बड़े थे!
जहाँ-तहाँ तरबूज पड़े थे!!
इनमें से था एक उठाया!
बैठ खेत में इसको खाया!!
इसका गूदा लाल-लाल था!
|
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सोमवार, 1 जून 2015
"तरबूज" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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