मौसम अच्छा हो
गया, हुआ शीत का अन्त।
पहन पीत परिधान
को, खुश हो रहा बसन्त।।
--
पेड़ों ने पतझाड़
में, दिये पात सब झाड़।
हिम से अब भी हैं
ढके, चोटी और पहाड़।।
--
नवपल्लव की आस
में, पेड़ तक रहे बाट।
भक्त नहाने चल
दिये, गंगा जी के घाट।।
--
युगलों पर चढ़ने
लगा, प्रेमदिवस का रंग।
बदला सा परिवेश है,
बदल गये हैं ढंग।।
--
उपवन में गदरा
रहे, पौधों के अब अंग।
मधुमक्खी लेकर
चली, कुनबा अपने संग।।
--
फूली सरसों खेत
में, पहन पीत परिधान।
गुनगुन की गुंजार
से, भ्रमर गा रहे गान।।
--
गेहूँ और मसूर भी,
लहर-लहर लहराय।
अपनी खेती देखकर, कृषक
रहे मुसकाय।।
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रविवार, 31 जनवरी 2016
दोहे "हुआ शीत का अन्त" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
शनिवार, 30 जनवरी 2016
दोहे "माँ का हृदय उदार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
छन्दों में देना
मुझे, शब्दों का उपहार।
माता मेरी वन्दना,
कर लेना स्वीकार।।
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गति, यति, सुर,
लय-ताल का, नहीं मुझे कुछ ज्ञान।
बिना पंख के उड़
रहा, मन का रोज विमान।।
--
मिला नहीं अब तक
मुझे, कोई भी ईनाम।
तुकबन्दी मैं कर रहा,
माता का ले नाम।।
--
आड़ी-तिरछी खींचता, रेखाओं को रोज।
रूप-रंग से हीन है, मानस कुमुद-सरोज।।
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होता है सुत के
लिए, माँ का हृदय उदार।
नाम आपका शारदे,
कविता में दो सार।।
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माता अपने दास पर,
करना यह उपकार।
जीवनभर सुनता
रहूँ, वीणा की झंकार।।
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अक्षर-शब्द विधान
में, माताजी का नाम।
नित्य-नियम से
आपकी, पूजा करना काम।।
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नहीं जानता साधना,
रहता हरदम मौन।
देकर कर में
तूलिका, लिखवा जाता कौन।।
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शब्दों के संयोग से, बन जाता साहित्य।
माता के आशीष से, आ जाता लालित्य।।
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शुक्रवार, 29 जनवरी 2016
"गांधी जी कहते हे राम!" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
गांधी जी को नमन
राम नाम है सुख का धाम।
राम सँवारे बिगड़े काम।। असुर विनाशक, जगत नियन्ता, मर्यादापालक अभियन्ता, आराधक तुलसी के राम। राम सँवारे बिगड़े काम।। मात-पिता के थे अनुगामी, चौदह वर्ष रहे वनगामी, किया भूमितल पर विश्राम। राम सँवारे बिगड़े काम।। कपटी रावण मार दिया था लंका का उद्धार किया था, राम नाम में है आराम। राम सँवारे बिगड़े काम।। जब भी अन्त समय आता है, मुख पर राम नाम आता है, गांधी जी कहते हे राम! राम सँवारे बिगड़े काम।। |
"प्रेम-प्रीत का हो संसार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री मयंक')
बुलबुल गाये मधुर तराने, प्रेम-प्रीत का हो संसार।
नया साल मंगलमय होवे, महके-चहके घर परिवार।।
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ऋतुओं में सुख की सुगन्ध हो,
काव्यशास्त्र से सजे छन्द हों,
ममता में समानता होवे, मिले सुता को सुत सा प्यार।
नया साल मंगल मय होवे, महके-चहके घर-परिवार।।
फूल खिलें हों गुलशन-गुलशन,
झूम-झूमकर बरसे सावन,
नदियों में कल-कल निनाद हो, मोर-मोरनी गायें मल्हार।
नया साल मंगल मय होवे, महके-चहके घर-परिवार।।
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भेद-भाव का भूत न होवे,
कोई पूत कपूत न होवे,
हिन्दी की बिन्दी की गूँजे, दुनियाभर में जय-जयकार।
नया साल मंगल मय होवे, महके-चहके घर-परिवार।।
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गुरुवार, 28 जनवरी 2016
गीत "धूप अब खिलने लगी है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बुधवार, 27 जनवरी 2016
ग़ज़ल "आजाद हिन्दुस्तान के नारे बदल गये" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सागर बदल गया है, किनारे बदल गये
आजाद हिन्दुस्तान के, नारे बदल गये
सोने की चिड़िया इसलिए, कंगाल हो गयी
कुदरत की सल्तनत के, इशारे बदल गये
दीनोइमान बिक गये राजा-वजीर के
नज़रें बदल गयीं तो, नज़ारे बदल गये
वीरान हो गयी यहाँ, चाणक्य की कुटिया
अपने वतन के, आज इदारे बदल गये
दलदल में फँसी नाव, कैसे पार लगेगी
चन्दा बदल गया है, सितारे बदल गये
अब इन्कलाब की, कोई उम्मीद ना रही
नापाक दिल के अब तो, शरारे बदल गये
बदला हुआ है ढंग, अब किरदार का यहाँ
जीवन के सारे "रूप", हमारे बदल गये
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मंगलवार, 26 जनवरी 2016
गीत "गणतन्त्र पर्व पर,रक्षराज ही पाया है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सोमवार, 25 जनवरी 2016
"लोक का नहीं रहा जनतन्त्र" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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रविवार, 24 जनवरी 2016
गीत "सवाल पर सवाल हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
सवाल पर सवाल हैं, कुछ नहीं जवाब है।
राख में ढकी हुई, हमारे दिल की आग है।।
गीत भी डरे हुए, ताल-लय उदास हैं.
पात भी झरे हुए, शेष चन्द श्वास हैं,
दो नयन में पल रहा, नग़मग़ी सा ख्वाब है।
राख में ढकी हुई, हमारे दिल की आग है।।
ज़िन्दगी है इक सफर, पथ नहीं सरल यहाँ,
मंजिलों को खोजता, पथिक यहाँ-कभी वहाँ,
रंग भिन्न-भिन्न हैं, किन्तु नहीं फाग है।
राख में ढकी हुई, हमारे दिल की आग है।।
बाट जोहती रहीं, डोलियाँ सजी हुई,
हाथ की हथेलियों में, मेंहदी रची हुई,
हैं सिंगार साथ में, पर नहीं सुहाग है।
राख में ढकी हुई, हमारे दिल की आग है।।
इस अँधेरी रात में, जुगनुओं की भीड़ है,
अजनबी तलाशता, सिर्फ एक नीड़ है,
रौशनी के वास्ते, जल रहा च़िराग है।
राख में ढकी हुई, हमारे दिल की आग है।।
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शनिवार, 23 जनवरी 2016
दोहे "दिवस आज का खास" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
अपने भारत देश
में, जन्मा वीर सुभास।।
--
जीवित मृत घोषित
किया, सबको हुआ मलाल।
सत्ता पाने के
लिए, चली गयी थी चाल।।
--
क्यों इतने भयभीत
हैं, शासन में अधिराज।
नहीं उजागर हो
सका, नेता जी का राज।।
--
इस साजिश पर हो
रहा, सबको पश्चाताप।
नेता जी को दे
दिये, जीते जी सन्ताप।।
--
सच्चाई से आज भी,
क्यों इतना परहेज।
अब तो जग जाहिर
करो, सारे दस्तावेज।।
--
जिसके कारण है हुआ,
यह उपवन आजाद।
उस नेता की आ
रही, अब जन-गण को याद।।
--
अर्पित श्रद्धा के
सुमन, तुमको करता देश।
नेता जी के भुवन में, गूँज रहे सन्देश।।
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शुक्रवार, 22 जनवरी 2016
व्यंग्य "आज का नेता-किसी को कुछ नही देता" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
व्यंग्य का प्रयास
जिसका
अस्तित्व
नही
मिटा पाई,
कभी
भी,
समय की आंधी ।
ऐसा
था,
हमारा
राष्ट्र-पिता,
महात्मा
गान्धी ।।
कितना
है कमजोर,
सेमल
के पेड़ सा-
भाषण के अतिरिक्त,
कुछ
नही देता ।।
दिया
सलाई का-
मजबूत
बक्सा,
सेंमल
द्वारा निर्मित,
एक
भवन ।
माचिस
दिखाओ
और
कर लो हवन ।
आग
ही तो लगानी है,
चाहे-तन, मन, धन
हो
या
वतन।।
यह
बहुत मोटा-ताजा
है,
परन्तु,
सूखे
साल रूपी,
गांधी
की तरह बलिष्ट नही,
इसे
तो गांधी की सन्तान कहते हुए भी-
.........................।।
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