बिन पतझड़
झड़ने लगे, नये पुराने पात।
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बदल गया है आज तो, जीने का अन्दाज।
लोगों के आचरण से, शर्मिन्दा है लाज।।
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दुराचार से जगत को, कैसे मिले निजात।
नवयुग के इस दौर में, बदल गये हालात।
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गोमाता भूखी मरे, पलते घर-घर श्वान।
मात-पिता का हो रहा, पग-पग पर अपमान।।
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तोड़ रही दम सभ्यता, आहत है परिवेश।
पुस्तक तक सीमित हुए, सन्तों के सन्देश।।
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देख दुर्दशा धर्म की, हैरत में भगवान।
फिरकों में अब बँट गये, राम और रहमान।।
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बिना विचारे हो रहा, वाणी का संधान।
अब मानव के रूप में, छिपे हुए हैवान।।
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गुरुवार, 7 जनवरी 2016
दोहे "फिरकों में अब बँट गये, राम और रहमान" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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