♥ रस काव्य की आत्मा है ♥
सबसे पहले
यह जानना आवश्यक है कि रस क्या होता है?
कविता पढ़ने
या नाटक देखने पर पाठक या दर्शक को जो आनन्द मिलता है उसे रस कहते हैं।
आचार्यों ने
रस को काव्य की आत्मा की संज्ञा दी है।
रस के चार
अंग होते हैं।
1- स्थायी भाव,
2- विभाव,
3- अनुभाव और
4- संचारी भाव
सहृदय
व्यक्ति के हृदय में जो भाव स्थायी रूप से विद्यमान रहते हैं, उन्हें स्थायी भाव
कहा जाता है। यही भाव रस का बोध पाठक को कराते हैं।
काव्य के
प्राचीन आचार्यों ने स्थायी भाव की संख्या नौ निर्धारित की थी, जिसके आधार पर रसों
की संख्या भी नौ ही मानी गई थी।
स्थायी
भाव रस
रति
शृंगार
हास हास्य
शोक
करुण
क्रोध
रौद्र
उत्साह वीर
भय
भयानक
जुगुप्सा
(घृणा) वीभत्स
विस्मय अद्भुत
निर्वेद शान्त
लेकिन
अर्वाचीन विद्वानों ने वात्सल्य के नाम से दसवाँ रस भी स्वीकार कर लिया। किन्तु
इसका भी स्थायी भाव रति ही है। अन्तर इतना है कि जब रति बालक के प्रति उत्पन्न
होती है तो उससे वात्सल्य की और जब ईश्वर के प्रति होती है तो उससे भक्ति रस की
निष्पत्ति होती है।
विभाव
जिसके कारण
सहृदय व्यक्ति को रस प्राप्त होता है , वह विभाव कहलाता है। अतः स्थायी भाव का कारण विभाव है।
यह दो प्रकार का होता है-
क- आलम्बन
विभाव
ख- उद्दीपन
विभाव
(I)
आलम्बन
विभाव
वह कारण जिस
पर भान अवलम्बित रहता है- अर्थात् जिस व्यक्ति या वस्तु के प्रति मन में रति आदि
स्थायी भाव उत्पन्न होते हैं, उसे आलम्बन कहते हैं तता जिस व्यक्ति के मन में स्थायी
भाव उत्पन्न होते हैं उसे आश्रय कहते
हैं। उदाहरण के लिए पुत्र की मृत्यु पर विलाप करती हुई माता। इसमें माता आश्रय
है और पुत्र आलम्बन है। अतः यहाँ स्थायी भाव शोक है जिससे करुणरस की उत्पत्ति
होती है।
(II)
उद्दीपन
विभाव
जो आलम्बन
द्वारा उत्पन्न भावों को उद्दीप्त करते हैं, वे उद्दीपन विभाव
कहलाते हैं। जैसे- जंगल में सिंह का
गर्जन। इससे भय का स्थायी भाव उद्दीप्त होता है और सिंह का खुला मुख जंगल की
भयानकता आदि का उद्दीपन विभाव है। इससे भयानक रस की उत्पत्ति होती है।
अनुभाव
स्थायी भाव
के जाग्रत होने पर आश्रय की वाह्य चेष्टाओं को अवुबाव कहा जाता है। जैसे- भय
उत्पन्न होने पर हक्का-बक्का हो जाना, रोंगटे खड़े हो जाना, काँपना, पसीने से तर हो जाना
आदि।
यदि बिना
किसी भावोद्रेक के मात्र भौतिक परिस्थिति के कारण अगर ये चेष्टाएँ दिखाई पड़ती
हैं तो उन्हें अनुभाव नहीं कहा जाएगा। जैसे - जाड़े के कारण काँपना या गर्मी के
कारण पसीना निकलना आदि।
संचारी भाव
आश्रय के मन
में उठने वाले अस्थिर मनोविकारों को संचारी भाव कहते हैं। ये मनोविकार पानी के
बुलबुले की भाँति बनते और मिटते रहते हैं, जबकि स्थायी भाव
अन्त तक बने रहते हैं।
यहाँ यह भी
उल्लेख करना आवश्यक है कि प्रत्येक रस का स्थायी भाव तो निश्चित है परन्तु एक ही संचारी अनेक रसों
में हो सकता है। जैसे - शंका शृंगार रस में भी हो सकती है और भयानक रस में भी।
यहाँ यह भी विचारणय है कि स्थायी भाव भी दूसरे रस में संचारी भाव हो जाते हैं।
जैसे - हास्य रस का स्थायी भाव "हास" शृंगार रस में संचारी भाव बन
जाता है। संचारी भाव को व्यभिचारी भाव के नाम से भी जाना जाता है।
रसों के
बारे में विस्तार से अपनी अगली किसी पोस्ट में प्रकाश डालूँगा....।
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