आयोजन के नाम पर, धन जो रहे डकार।
उनको ही अब रेबड़ी, बाँट रही सरकार।।
कदम-कदम पर दे
रहे, धोखा बनकर मीत।
लिखते झूठे गीत
हैं, करते झूठी प्रीत।।
मिलते हैं प्रत्यक्ष
जब, जतलाते हैं प्यार।
लेकिन वही परोक्ष
में, करते प्रबल प्रहार।।
चन्दा लेकर पालते,
खुद अपना परिवार।
उनको ही अब रेबड़ी, बाँट रही सरकार।१।
वाणी में जिनकी नहीं,
सच्चाई का अंश।
आस्तीन में बैठ
कर, देते हैं वो दंश।।
झूठी चिट्ठी
भेजते, मन्त्री और प्रधान।
उद्यत रहते हैं
सदा, करने को अपमान।।
अपने ही घर में नहीं,
जिनका कुछ आधार।
उनको ही अब रेबड़ी, बाँट रही सरकार।२।
राम-श्याम रहमान
का, करते जो अपमान।
ऐसे लोगों का कभी,
करना मत सम्मान।।
मिल जायेंगे हर
जगह, झूठे-बेईमान।
पात्र देख कर ही
सदा, यथाशक्ति दो दान।।
योगी बनकर घूमते, रँगे
हुए कुछ स्यार।
उनको ही अब रेबड़ी, बाँट रही सरकार।३।
राज़-राज़ जब तक
रहे, तब तक ही है राज।
बिनाछन्द के साज
भी, हो जाता नाराज।
देते अपने गद्य
को, जो कविता का नाम।
ऐसे लोगों ने किया,
काव्य आज बदनाम।।
अपनी हिन्दी का
हुआ, अब तो बण्टाधार।
उनको ही अब रेबड़ी, बाँट रही सरकार।४।
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गुरुवार, 26 मई 2016
दोहागीत "रेबड़ी, बाँट रही सरकार" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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