झुलस रहा था बदन जब, दुनिया थी बेहाल।
गुलमोहर तब हो गया, गरमी खाकर लाल।।
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जितनी गरमी पड़ रही, उतना निखरा रूप।
खुश होता है गुलमुहर, खा कर निखरी धूप।।
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सड़क किनारे है खड़ा, केसरिया को धार।
सब लोगों को बाँटता, छाया का उपहार।।
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गरम हवाएँ पी रहा, खुश हो करके सन्त।
जेठ मास में आ गया, मानो पुनः बसन्त।।
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दुनियाभर को दे रहा, गुलमोहर उपदेश।
खुश हो करके मानिए, कुदरत का आदेश।।
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सुख-दुख दोनों में रहो, हरदम एक समान।
जैसे सुख-दुख झेलता, निर्धन श्रमिक-किसान।।
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बीज धरा में डालकर, कर लेता सन्तोष।
धरती के आगोश में, बढ़ता जाता कोष।।
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गुरुवार, 5 मई 2016
दोहे "छाया का उपहार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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