बलखाती-लहराती उमड़ी, पर्वत से जल धारा।
मैदानों पर आकर, उसने चंचल “रूप” सँवारा।।
बहती है उन्मुक्त भाव से, अपनी राह बनाती,
कलकल-छलछल करती, सबको मधुरिम राग सुनाती,
नदिया ने सिखलाया जग को, चरैवेति का नारा।
मैदानों पर आकर, उसने चंचल “रूप” सँवारा।।
जब-जब कदम बढ़ाता राही, आगे को बढ़ जाता,
तालाबों का नीर, पंक के साथ सदा सड़ जाता,
बैठे-ठाले नहीं किसी को, देता कोई सहारा।
मैदानों पर आकर, उसने चंचल “रूप” सँवारा।।
बिना नेह के सूखी बाती, कभी नहीं जलती है,
साहस-श्रम से ही तो, जीवन की नौका चलती है,
नाविक की पतवार चली, तो आया पास किनारा।
मैदानों पर आकर, उसने चंचल “रूप” सँवारा।।
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बुधवार, 2 नवंबर 2016
गीत "चंचल “रूप” सँवारा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जवाब देंहटाएंसुन्दर गीत ।
जवाब देंहटाएंनिरंतर चलते रहो
जवाब देंहटाएंजिंदगी जीने का सन्देश देती है नदियां .. और हमारी पहाड़ी नदियों की बात तो सबसे निराली है ...
..बहुत सुन्दर
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएं