घर-आँगन-कानन में जाकर,
मैं तुकबन्दी करता हूँ।
अनुभावों का अनुगायक हूँ,
मैं कवि लिखने से डरता हूँ।।
है नहीं मापनी का गुनिया,
अब तो अतुकान्त लिखे दुनिया।
असमंजस में हैं सब बालक,
क्या याद करे इनको मुनिया।
मैं बन करके पागल कोकिल,
कोरे पन्नों को भरता हूँ।
मैं कवि लिखने से डरता हूँ।।
आयुक्त फिरें मारे-मारे,
उन्मुक्त हुए बन्धन सारे।
जीवन उपवन के शब्दों में,
अब तुप्त हो गये बंजारे।
पतझर की मारी बगिया में,
मैं सुमन सुगन्धित झरता हूँ।
मैं कवि लिखने से डरता हूँ।।
दे पन्त-निराला की मिसाल,
चौकीदारी करते विडाल।
निर्मल कैसे अब नीर रहे,
कचरा गंगा में रहे डाल।
मिलते हैं मोती बगुलों को,
मैं घास-पात को चरता हूँ।
मैं कवि लिखने से डरता हूँ।।
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मंगलवार, 29 नवंबर 2016
गीत "कवि लिखने से डरता हूँ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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"मिलते हैं मोती बगुलों को,
जवाब देंहटाएंमैं घास-पात को चरता हूँ"
हा हा बहुत सुन्दर । डरिये मत लिखते रहिये । अतुकांत की आयू कम होती है :)
जवाब देंहटाएंमिलते हैं मोती बगुलों को,
जवाब देंहटाएंमैं घास-पात को चरता हूँ।
मैं कवि लिखने से डरता हूँ
..देर ही सही लेकिन समय आने पर सब जानते हैं किसकी क़द्र कितनी है ....
बहुत सुन्दर
waah bahut sundar pic bhi bahut sundar hai rachna bhi ....bahut khoob badhai
जवाब देंहटाएं