कैसा है ये फैसला, जनता है बदहाल।
रोगी को औषध नहीं, दस्तक देता काल।।
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सन्नाटा बाजार में, समय हुआ विकराल।
नोट जेब में हैं नहीं, कौन खरीदे माल।।
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फाँस गले में फँस गयी, शासक है लाचार।
नये-नये कानून नित, लाती है सरकार।।
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काम-धाम को छोड़कर, हुए आज मजबूर।
लाइन में लगकर खड़े, कृषक और मजदूर।।
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गेहूँ बोने के लिए, नहीं बीज औ’ खाद।
धरती के भगवान का, जीवन है बरबाद।।
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जिनके मत से है मिली, सत्ता की जागीर।
वो कैसे समझें भला, जनता की अब पीर।।
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रोज विमानों में उड़ें, राजा और वजीर।
करते लच्छेदार हैं, जनता में तकरीर।।
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शुक्रवार, 25 नवंबर 2016
दोहे "हुए आज मजबूर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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