सच लिखने
से डर रहे, कलमकार-फनकार।
उन लोगों
की कलम को, बार-बार धिक्कार।।
जी.यस.टी.
से हो रहा, जन-मानस बदहाल।
रोगी को
औषध नहीं, दस्तक देता काल।।
अपने बिल
में रेंगकर, सीधा चलता सर्प।
शासक और
महन्त को, खा जाता है दर्प।।
राजतन्त्र
सा झलकता, लोकतन्त्र में आज।
मनमाने अब
देश में, लागू हुए रिवाज।।
पानी नभ
में है नहीं, शीतल है अब भोर।
हरियाली
पीली हुई, धरती पर चहुँओर।।
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रविवार, 12 नवंबर 2017
दोहे "जन-मानस बदहाल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बेहद ही सुंदर रचना...
जवाब देंहटाएंसटीक।
जवाब देंहटाएंकालजयी दोहों की रचना में गंभीर चिंतन और प्रेरणा का अद्भुत आकर्षण होता है। आदरणीय शास्त्री जी के दोहे इस मानक पर खरे उतर रहे हैं। बधाई एवं शुभकामनाऐं।
जवाब देंहटाएंशास्त्री जी, बहुत सुन्दर दोहे ! आज का लोकतंत्र तो पुराने राजतंत्र से भी बदतर है. पुराने ज़माने अशोक, चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य और शेरशाह जैसे उदार निरंकुश शासक तो होते थे किन्तु आज इस लोकतंत्र में छद्म-तानाशाह ही मिलते हैं.
जवाब देंहटाएंवाह!!बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंवाह वाह !! बहोत बढ़िया शास्त्री जी
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
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