कुहरे ने सूरज ढका, थर-थर काँपे देह।
पर्वत पर हिमपात है, नहीं बरसता मेह।।
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ऊनी कपड़े पहनकर, मिलता है आराम।
बच्चे-बूढ़े ढक रहे, अपनी-अपनी चाम।।
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ख़ास मजे को लूटते, व्याकुल होते आम।
मूँगफली मेवा समझ, खाते सुबहो-शाम।।
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आज घरेलू गैस के, बढ़े हुए हैं भाव।
लकड़ी मिलती हैं नहीं, कैसे जले अलाव।।
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हाड़ काँपता शीत से, ठिठुरा देश-समाज।
गीजर-हीटर क्या करें, बिन बिजली के आज।।
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बाजारों में हो गया, महँगा आलू-प्याज।
खाये-आलू प्याज को, कैसे निर्धन आज।।
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गुणवानों की जेब में, कौड़ी नहीं छदाम।
कंगाली में हो रहा, परमारथ का काम।।
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कविता लिखकर हो गया, जीवन मटियामेट।
दोहे लिखने से नहीं, भरता पापी पेट।।
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कलमकार रचना करें, सन्त करें उपदेश।
आपस में मिल कर रहें, ये देते सन्देश।।
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बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंएक समय थे जब आलू प्याज रद्दी के भाव मिल रहे थे
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी सामयिक चिंतनप्रद रचना