बात-बात पर हो रही, आपस में तकरार।
भाई-भाई में नहीं, पहले जैसा प्यार।।
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बेकारी में भा रहा, सबको आज विदेश।
खुदगर्ज़ी में खो गये, ऋषियों के सन्देश।।
कर्णधार में है नहीं, बाकी बचा जमीर।
भारत माँ के जिगर में, घोंप रहा शमशीर।।
आज देश में सब जगह, फैला भ्रष्टाचार।
भाई-भाई में नहीं, पहले जैसा प्यार।।
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कुनबेदारी ने लिया, लोकतन्त्र का “रूप”।
सबके हिस्से में नहीं, सुखद गुनगुनी धूप।।
दल-दल के तो मूल में, फैला मैला पंक।
अब कैसे राजा हुए, कल तक थे जो रंक।।
कैसे भी हो आय हो, मन में यही विचार।
इसीलिए मैली हुई, गंगा जी की धार।।
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ओढ़ लबादा हंस का, घूम रहे हैं बाज।
लूट रहे हैं चमन को, माली ही खुद आज।।
खूनी पंजा देखकर, सहमे हुए कपोत।
सूरज अपने को कहें, ये छोटे खद्योत।।
मन को अब भाती नहीं, वीणा की झंकार।
इसीलिए मैली हुई, गंगा जी की धार।।
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आपाधापी की यहाँ, भड़क रही है आग।
पुत्रों के मन में नहीं, माता का अनुराग।।
बड़ी मछलियाँ खा रहीं, छोटी-छोटी मीन।
देशनियन्ता पर रहा, अब कुछ नहीं यकीन।।
छल-बल की पतवार से, कैसे होंगे पार,
इसीलिए मैली हुई, गंगा जी की धार।।
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बुधवार, 28 मार्च 2018
दोहागीत "आपस में तकरार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत अच्छी प्रेरक सामयिक रचना
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29.3.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2924 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
कटु सत्य
जवाब देंहटाएं