कुछ ने पूरी पंक्ति उड़ाई,
कुछ ने थीम चुराई मेरी।
मैं तो रोज नया लिखता हूँ
रोज बजाता हूँ रणभेरी।
चोरों के नहीं महल बनेंगे,
इधर-उधर ही वो डोलेंगे।
उनको माँ कैसे वर देगी,
उनके शब्द नहीं बोलेंगे।
उनका जीना भी क्या जीना,
सिसक-सिसककर जो है जिन्दा।
ऐसे पामर नीच-निशाचर,
होते नहीं कभी शरमिन्दा।
अक्षय-गागर मुझको देकर,
माता ने उपकार किया है।
चोर-उचक्कों से देवी ने,
शब्दकोश को छीन लिया है।
मैं उनका स्वागत करता हूँ,
जो ऐसे गीतों को रचते।
मुखड़ा मेरा जिनको भाया,
किन्तु सत्य कहने से बचते।
छन्द-काव्य को तरस रहे वो,
चूर हुए उनके सपने हैं।
कैसे कह दूँ उनको बैरी,
वो सब तो मेरे अपने हैं।
समझदार के लिए इशारा,
इस तुकबन्दी में करता हूँ।
मैं दिन-प्रतिदिन लिखता जाता,
केवल ईश्वर से डरता हूँ।
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शनिवार, 31 मार्च 2018
कविता "थीम चुराई मेरी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आपकी लिखी रचना आज के "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 01 एप्रिल 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंलाजवाब....
जवाब देंहटाएंवाह!!!
बहुत खूब ..सुंदर .. शानदार रचना
जवाब देंहटाएंवाह!!बहुत सुंदर ।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंबहुत सही
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना.
जवाब देंहटाएं