हर पत्थर हीरा बन जाता,
जब किस्मत नायाब हो,
मोती-माणिक पत्थर लगता,
उतर गई जब आब हो,
इम्तिहान में पास हुआ वो,
तपकर जिसका तन निखरा।
बिन परखे क्या पता चलेगा,
किसमें कितना खोट भरा।।
नंगे हैं अपने हमाम में,
नागर हों या बनचारी,
कपड़े ढकते ऐब सभी के,
चाहे नर हों या नारी,
पोल-ढोल की खुल जाती तो,
आता साफ नज़र चेहरा।
बिन परखे क्या पता चलेगा,
किसमें कितना खोट भरा।।
गर्मी की ऋतु में सूखी थी,
पेड़ों-पौधों की डाली,
बारिश के मौसम में,
छा जाती झाड़ी में हरियाली,
पानी भरा हुआ गड्ढा भी,
लगता सागर सा गहरा।
बिन परखे क्या पता चलेगा,
किसमें कितना खोट भरा।। |
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रविवार, 10 जून 2018
गीत "सागर सा गहरा" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (11-06-2018) को "रखना कभी न खोट" (चर्चा अंक-2998) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी