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कंकरीट जबसे बना, जीवन का आधार।
तबसे पर्यावरण की, हुई करारी हार।२।
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पेड़ कट गये धरा के, बंजर हुई जमीन।
प्राणवायु घटने लगी, छाया हुई विलीन।३।
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नैसर्गिक अनुभाव का, होने लगा अभाव।
दुनिया में होने लगे, मौसस में बदलाव।४।
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शस्य-श्यामला धरा को, किया प्रदूषित आज।
कुदरत से खिलवाड़ अब, करने लगा समाज।५।
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नकली सुमनों में नहीं, होता है मकरन्द।
कृत्रिमता में है नहीं, जीवन का आनन्द।६।
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जबसे जंगल में बिछा, कंकरीट का जाल।
धरती पर आने लगे, चक्रवात-भूचाल।७।
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पर्यावरण बचाइए, धरती कहे पुकार।
पेड़ लगाकर कीजिए, धरती का शृंगार।८।
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एक साल में एक दिन, होती जय-जयकार।
पर्यावरण दिवस कहाँ, होगा फिर साकार।९।
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बुधवार, 5 जून 2019
दोहे "धरती का शृंगार" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 06.06.19 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3358 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
वाकई, गाँव भी आज शहरों की तरह प्रदूषित होते जा रहे हैं, जरूरत है समय रहते जाग जाने की
जवाब देंहटाएं