एक पुराना संस्मरण
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बात लगभग 60 वर्ष पुरानी है। श्री रामचन्द्र आर्य मेरे मामा जी थे जो आर्य समाज के अनुयायी थे। उनके मन में एक ही लगन थी कि परिवार के सभी बच्चें पढ़-लिख जायें और उनमें आर्य समाज के संस्कार भी आ जायें। बिल्कुल यही विचारधारा मेरे पूज्य पिता जी की भी थी।
मेरी माता जी अपने भाई-बहनों में सबसे बड़ी थीं और मैं अपने घर का तो इकलौता पुत्र था ही साथ ही ननिहाल का भी दुलारा था। इसलिए मामाजी का निशाना भी मैं ही बना। अतः उन्होंने मेरी माता जी और नानी जी अपनी बातों से सन्तुष्ट कर दिया और मुझको गुरूकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर (हरद्वार) में दाखिल करा दिया गया।
गुरूकुल का जीवन बिल्कुल भी अच्छा नही लगता था। मैं कक्षा में न जाने के लिए अक्सर नये-नये बहाने ढूँढ ही लेता था और गुरूकुल के संरक्षक से अवकाश माँग लेता था।
उस समय मेरी बाल-बुद्धि थी और मुझे ज्यादा बीमारियों के नाम भी याद नही थे। एक दो बार तो गुरू जी से ज्वर आदि का बहाना बना कर छुट्टी ले ली। परन्तु हर रोज एक ही बहाना तो बनाया नही जा सकता था। अगले दिन भी कक्षा में जाने का मन नही हुआ, मैंने गुरू जी से कहा कि-‘‘गुरू जी मैं बीमार हूँ, मुझे प्रसूत रोग हुआ है।’’ गुरू जी चौंके - हँसे भी बहुत और मेरी जम कर मार लगाई।
अब तो मैंने निश्चय कर ही लिया कि मुझे गुरूकुल में नही रहना है। अगले दिन रात के अन्तिम पहर में 4 बजे जैसे ही उठने की घण्टी लगी। मैंने शौच जाने के लिए अपना लोटा उठाया और रेल की पटरी-पटरी स्टेशन की ओर बढ़ने लगा। रास्ते में एक झाड़ी में लोटा भी छिपा दिया।
3 कि.मी. तक पैदल चल कर ज्वालापुर स्टेशन पर पहँचा तो देखा कि रेलगाड़ी खड़ी है। मैं उसमें चढ़ गया। 2 घण्टे बाद जैसे ही नजीबाबाद स्टेशन आया मैं रेलगाड़ी से उतर गया और सुबह आठ बजे अपने घर आ गया। मुझे देखकर मेरी छोटी बहन बहुत खुश हुई। उस समय पिता जी कहीं गये हुए थे। एक घंटा बाद जब वो घर पहुँचे।
पिता जी के घर आते ही माता जी ने कहा कि रूपचन्द कहाँ है? तो पिता जी ने कहा कि उसे तो गुरूकुल में छोड़ आया हूँ। मैं 2 घण्टे उसके साथ भी रहा था। आश्रम के संरक्षक से भी बातें हुईं थीं और उन्होंने कहा था कि अब ब्रह्मचारी का मन एकाग्र हो गया है। अब वह गुरूकुल से नहीं भागेगा।
इस बात को सुन कर माता जी हँसने लगीं और मुझे पिता जी के सामने पेश कर दिया। बस अब तो मेरी शामत आ गयी और पिता जी पतली सण्टी से मेरी पिटायी करने लगे। 2-3 सण्टी ही मुझे लगी थी कि माता जी ने मुझे बचा लिया। पिता जी ने तब मुझे पहली बार सजा दी थी। लेकिन इस सजा में भी उनका प्रेम ही झलकता था। क्योंकि मैं उनका इकलौता पुत्र था और वो मुझे योग्य बनाना चाहते थे।
माता जी ने पिता जी के सामने तो मुझ पर बहुत गुस्सा किया। लेकिन बाद में मुझे बहुत प्यार किया।
यही थी मेरी गुरूकुल की पहली यात्रा।
बचपन मेरा खो गया, हुआ वृद्ध मैं आज।
सोच-समझकर अब मुझे, करने हैं सब काज।।
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जब तक मेरे शीश पर, रहा आपका हाथ।
लेकिन अब आशीष का, छूट गया है साथ।।
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दुर्लभ यादों का सफर । सुन्दर संस्मरण सर ।
जवाब देंहटाएंमुझे पिताजी की संटी का प्रसाद कभी नहीं मिला, हाँ, माँ छोटी से छोटी शरारत पर भी ऐसा प्रसाद देने में बहुत ही नियमित थीं. लेकिन माँ का ऐसा प्रसाद पाकर मुझे कोई अफ़सोस नहीं होता था क्योंकि वो हर्जाने में एकाद आना मुझे हर-बार थमा देती थीं.
जवाब देंहटाएंआदरणीय शास्त्री जी,बचपन ऐसा ही होता हैं। अपने मन की करने के लिए ऐसे ऐसे बहाने बनाता हैं कि अच्छे अच्छे साहित्यकार भी घुटने टेक दे। बहुत बढ़िया संस्मरण।
जवाब देंहटाएंBahut khoob
जवाब देंहटाएंI am a Ayurvedic Doctor.
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