-- कल केवल कुहरा आया था, अब बादल भी छाया है। हाय भयानक इस सर्दी ने, सबका हाड़ कँपाया है।। -- भीनी-भीनी पड़ी फुहारें, झीना-झीना उजियारा। आग सेंकता सरजू दादा, दिन में छाया अँधियारा। कॉफी और चाय का प्याला, सबसे ज्यादा भाया है।। -- आलू और शकरकन्दी भी, सबके मन को भाते हैं। गर्म-गर्म गाजर का हलवा, खुश होकर सब खाते हैं। कम्बल-लोई और कोट से, कोमल बदन छिपाया है।। -- हीटर-गीजर और अँगीठी, गज़क, रेवड़ी-मूँगफली। गर्म समोसे, टिक्की-डोसा, अच्छी लगती हैं इडली। मौसम के अनुकूल बया ने, सुन्दर नीड़ बनाया है।। -- |
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शनिवार, 3 दिसंबर 2022
गीत "नीड़ बनाया है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत अच्छी सामयिक रचना ..
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ गर्मागर्म खाने के बाद भी ठण्ड भागने का नाम ही नहीं लेती। धूप और आग के पास जब तक हैं तब तक राहत मिलती हैं लेकिन काम धाम के मारे इधर उधर भागना पड़ता है, किचन में पानी में हाथ लगाते ही मुंह से यही निकलता है - ठंडो रे ठाडो ................मेरा पहाड़ की हवा ठंडो पाणी.... .
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (०४-१२-२०२२ ) को 'सीलन '(चर्चा अंक -४६२४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आदरणीय 🙏❗️शीत ऋतु को इतने सुन्दर शब्दों में आपने बंधा है.. मन प्रफुल्लित हो गया... सादर साधुवाद ❗️--ब्रजेन्द्र नाथ
जवाब देंहटाएंआदरणीय डॉ साहब ,
जवाब देंहटाएंये प्रिस्क्रिप्शन सहर्ष स्वीकारणीय है
..... गर्म समोसे, टिक्की-डोसा,
मुँह से मानस तक रस भरती पंक्तिया
सादर वंदन अभिनन्दन
वाह! शीत के डर को खाद्य व्यंजनों ने आनंद बना दिया ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सामायिक रचना।
सादर।
बहुत अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंप्रणाम शास्त्री जी, वाह क्या मीठी कविता है- ''आलू और शकरकन्दी भी,
जवाब देंहटाएंसबके मन को भाते हैं।
गर्म-गर्म गाजर का हलवा,
खुश होकर सब खाते हैं।''....वाह