-- आहत वृक्ष कदम्ब का, तकता है आकाश। अपनी शीतल छाँव में, बंशी रहा तलाश।। -- माटी कैसी भी रहे, दे देता आकार। कितने श्रम से पात्र को, रचता रोज कुम्हार।। -- शब्दों में अपने नहीं, करता कभी कमाल। कच्ची माटी जब मिले, दूँ साँचों में ढाल।। -- चिन्तन-मन्थन के लिए, मिलता कच्चा माल। रोज-रोज लिख दीजिए, सच्चा-सच्चा हाल।। -- मंजिल पाने के लिए, मिल जाती है राह। लेकिन होनी चाहिए, मन में सच्ची चाह।। -- झंझावातों में सभी, बने हुए हैं बैल। मंजिल तब कैसे मिले, जब मन में हो मैल।। -- कंकड़-काँटों से भरी, प्यार-प्रीत की राह। बन जाती आसान तब, जब मन में हो चाह।। -- लोकतन्त्र में न्याय से, अक्सर होती भूल। कौआ मोती निगलता, हंस फाँकते धूल।। -- जिनको प्यार-दुलार से, पाल रहे हों शूल। सबके मन को मोहते, उपवन के वो फूल।। -- |
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बुधवार, 12 जून 2024
दोहे "रचता रोज कुम्हार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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