नष्ट हो गयी सभ्यता, भ्रष्ट हुआ परिवार।
फसल हुई चौपट सभी, फैली खर-पतवार।।
मौन हुए साधू सभी, मुखरित हैं अब चोर।
बाढ़ दिखाई दे रही, दौलत की सब ओर।।
सदाचार का हो गया, दिन में सूरज अस्त।
अब अपनी करतूत में, दुराचार है मस्त।।
मक्कारों की बाढ़ में, घिरा हुआ संसार।
फसल हुई चौपट सभी, फैली खर-पतवार।।
तन-मन मैले हो गये, छूट गया उपवास।
मेल-जोल का अब यहाँ, मेला हुआ उदास।।
मीत घोंपते मीत की, छुरा पीठ में आज।
आपाधापी में हुआ, दूषित सभ्य समाज।।
बेटा जीवित बाप से, माँग रहा अधिकार।
फसल हुई चौपट सभी, फैली खर-पतवार।।
अन्न और जल हो गया, दूषण से भरपूर।
जन-साधारण हो गया, आज मज़े से दूर।।
सुख की चाहत बढ़ गयी, गौण हो गया काज।
दाता करता कर्म को, दास भोगता राज।।
मतलब का संसार है, मतलब का व्यापार। फसल हुई चौपट सभी, फैली खर-पतवार।।
घोटालों में लिप्त हैं, राजा और वज़ीर।
माँ-बहनों का लोग अब, खीँच रहे हैं चीर।।
आज नहीं चाणक्य से, राजनीति के सन्त।
कूटनीति का हो गया, भारत से अब अन्त।।
जब पहुँचे मझधार में, टूट गयी पतवार।
फसल हुई चौपट सभी, फैली खर-पतवार।।
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शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015
दोहागीत "जब पहुँचे मझधार में टूट गयी पतवार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री मयंक')
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बहुत सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएंफैली खर पतवार
जवाब देंहटाएंसच में फैल गई है :)
सुंदर ।
सबसे बड़ा सच लिखा आपने
जवाब देंहटाएंफसल हुई चौपट सभी, फैली खर-पतवार...
जवाब देंहटाएंखर पतवारों का ही समय है .....
सटीक रचना ..
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंघोटालों में लिप्त हैं, राजा और वज़ीर।
जवाब देंहटाएंमाँ-बहनों का लोग अब, खीँच रहे हैं चीर।।
आज नहीं चाणक्य से, राजनीति के सन्त।
कूटनीति का हो गया, भारत से अब अन्त।।
जब पहुँचे मझधार में, टूट गयी पतवार।
फसल हुई चौपट सभी, फैली खर-पतवार।।
सुन्दर रचना।
घोटालों में लिप्त हैं, राजा और वज़ीर।
जवाब देंहटाएंमाँ-बहनों का लोग अब, खीँच रहे हैं चीर।।
आज नहीं चाणक्य से, राजनीति के सन्त।
कूटनीति का हो गया, भारत से अब अन्त।।
जब पहुँचे मझधार में, टूट गयी पतवार।
फसल हुई चौपट सभी, फैली खर-पतवार।।
सुन्दर रचना।
शानदार |
जवाब देंहटाएंसुंदर, सटीक और सार्थक
जवाब देंहटाएं