‘चन्दा और सूरज’’
चन्दा में चाहे कितने ही, धब्बे काले-काले हों।
सूरज में चाहे कितने ही, सुख के भरे उजाले हों।
लेकिन वो चन्दा जैसी शीतलता नही दे
पायेगा।
अन्तर के अनुभावों में, कोमलता नही दे पायेगा।।
सूरज में है तपन, चाँद में ठण्डक चन्दन
जैसी है।
प्रेम-प्रीत के सम्वादों की, गुंजन वन्दन जैसी है।।
सूरज छा जाने पर पक्षी, नीड़ छोड़ उड़ जाते हैं।
चन्दा के आने पर, फिर अपने घर वापिस आते
हैं।।
सूरज सिर्फ काम देता है, चन्दा देता है
विश्राम।
तन और मन को निशा-काल में, मिलता है पूरा आराम।।
--
संस्मरण
लगभग 8
वर्ष
पूर्व की बात है। उन दिनों मैं उत्तराखण्ड सरकार में राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग का
सदस्य था।
मेरे साथ एक सज्जन आयोग में अपनी शिकायत दर्ज
कराने के लिए जा रहे थे। गर्मी का मौसम था इसलिए रोडवेज बस की रात्रि-सेवा से
जाने का कार्यक्रम बनाया गया। रुद्रपुर से हमें देहरादून के लिए एसी बस पकड़नी
थी।
खटीमा से रात्रि 8 बजे चलकर 10 बजे रुद्रपुर पहुँचे। बस के आने में
एक घण्टे का विलम्ब था। सोचा खाना ही खा लिया जाये। हम दोनों खाने खाने लगे।
हमारे पास ही एक व्यक्ति जो पुलिस की वर्दी
पहने था। आकर बैठ गया।
हमने उससे कहा कि भाई! हमें खाना खा लेने दो।
हमने
खाना खा लिया, लेकिन 3 पराँठे बच गये।
मैं
इन्हें किसी माँगने वाले या गैया को देने ही जा रहा था कि वो बोला- ‘‘साहब ये पराँठे मुझे दे दीजिए। मैं सुबह से भूखा हूँ।’’
मैंने कहा- ‘‘पुलिस वाले होकर भूखे क्यों हो।’’
वह बोला- ‘‘साहब! मेरी जेब कट गयी है।’’
मैंने अब उससे विस्तार से पूछा और कहा कि
पुलिस कोतवाली में जाकर कुछ खर्चा क्यों नही ले लेते?
वह बोला- ‘‘साहब! वहाँ तो मुझे बहुत झाड़-लताड़ खानी पड़ेगी। इससे तो अच्छा है कि किसी
कण्डक्टर की सिफारिश करके बस में बैठ जाऊँगा।’’
बातों बातों में मुझे पता चला कि यह सिपाही
तो खटीमा थाने में ही तैनात है। मैंने उसे पचास रुपये बतौर किराये भी दे दिये।
जो उसने खटीमा आने पर मुझे चार-पाँच दिन बाद लौटा दिये थे।
मुझे उस दिन आभास हुआ कि भूख क्या
होती है।
एक ब्राह्मण कुल में जन्मा व्यक्ति भूख में
झूठे पराँठे और सब्जी खाने को भी मजबूर हो जाता है।
|
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शुक्रवार, 25 मार्च 2016
‘एक कविता और एक संस्मरण’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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