काव्यसंकलन
शामियाना-3
में मेरी ग़ज़ल
माँग छोटे आशियानों की
दरक़ती जा रही हैं नींव, अब पुख़्ता ठिकानों की
तभी तो बढ़ गयी है माँग छोटे आशियानों की
जिन्हें वो देखते कलतक, हिक़ारत की नज़र से थे
उन्हीं के शीश पर छत, छा रहे हैं शामियानों की
बहुत अभिमान था उनको, कबीलों की विरासत पर
हुई हालत बहुत खस्ता, घमण्डी खानदानों की
सियासत के समर में मिट गया, अभिमान दल-बल का
अखाड़े में धुलाई हो गयी, जब पहलवानों की
लगा झटका-बढ़ा खटका, खनककर आइना चटका
बग़ावत कर रहीं अब पगड़ियाँ, दस्तारखानों की
जगा है आम जब से, खास को होने लगी चिन्ता
अचानक आ गयी है याद, मज़लूमों-किसानों की
सलाखों का समाया डर, लगे अब काँपने थर-थर,
उज़ाग़र ख़ामियाँ जब हो गयीं, इन बे-ईमानों की
विदेशी बैंक में जाकर, छिपाया देश के धन को
खुलेगी पोल-पट्टी अब, शरीफों के घरानों की
सियासी गिरगिटों के “रूप” की, पहचान करने को
निकल आयीं सड़क पर टोलियाँ, अब नौजवानों की
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सोमवार, 28 मार्च 2016
ग़ज़ल "माँग छोटे आशियानों की" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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