गीत को भी जानिए!
हार में है छिपा जीत का आचरण।
सीखिए गीत से, गीत का व्याकरण।।
बात कहने से पहले, विचारो जरा,
मैल दर्पण का अपने, उतारो जरा,
तन सँवारो जरा, मन निखारो जरा,
आइने में स्वयं को, निहारो जरा,
दर्प का सब, हटा दीजिए आवरण।
सीखिए गीत से, गीत का व्याकरण।।
मत समझना सरल, जिन्दगी की डगर,
अजनबी लोग हैं, अजनबी है नगर,
ताल में जोहते, बाट मोटे मगर,
मीत ही मीत के, पर रहा है कतर,
सावधानी से आगे, बढ़ाना चरण।
सीखिए गीत से, गीत का व्याकरण।।
मनके मनकों से, होती है माला बड़ी
तोड़ना मत कभी, मोतियों की लड़ी
रोज आती नहीं है, मिलन की घड़ी
तोड़ने में लगी, आज दुनिया कड़ी
रिश्ते-नातों का, मुश्किल है पोषण-भरण।
सीखिए गीत से, गीत का व्याकरण।।
वक्त की मार से, तार टूटे नहीं,
भीड़ में मीत का, हाथ छूटे नहीं,
खीर का अब, भरा पात्र फूटे नहीं,
लाज लम्पट, यहाँ कोई लूटे नहीं,
प्यार से प्यार का, कीजिए जागरण।
सीखिए गीत से, गीत का व्याकरण।।
--
गीत क्या है?
प्राचीन समय में जिस गान में सार्थक शब्दों
के स्थान पर निरर्थक या शुष्काक्षरों का प्रयोग होता था वह निर्गीत या बहिर्गीत कहलाता
था। तनोम,
तननन या दाड़ा दिड़-दिड़ या दिग्ले
झण्टुं-झण्टुं इत्यादि निरर्थक अक्षरवला गान निर्गीत कहलाता था। आजकल का तराना निर्गीत
की कोटि में आएगा।
भरत के समय में गीति के आधारभूत नियत पदसमूह को ध्रुवा कहते थे। नाटक में
प्रयोग के अवसरों में भेद होने के कारण पाँच प्रकार के ध्रुवा होते थे-
प्रावंशिकी,
नैष्क्रामिकी, आक्षेपिकी, प्रासदिकी और अन्तरा।
स्वर और ताल में जो बँधे हुए गीत होते थे वे लगभग 9वीं 10वीं सदी से प्रबन्ध
कहलाने लगे। प्रबन्ध का प्रथम भाग, जिससे गीत का प्रारम्भ होता था, उद्ग्राह कहलाता था। यह गीत का वह अंश होता था जिसे बार-बार दुहराते थे और जो छोड़ा नहीं जा सकता
था। ध्रुव शब्द का अर्थ ही है –निश्चित, स्थिर। इस भाग को आजकल की भाषा
में टेक कहते हैं।
अन्तिम भाग को आभोग कहते थे। कभी कभी ध्रुव और आभोग के बीच में भी पद होता था जिसे
अन्तरा कहते थे। अन्तरा का पद प्रायः सालगसूड नामक प्रबन्ध में ही होता था।
जयदेव का गीतगोविन्द प्रबन्ध में लिखा गया है। प्रबन्ध कई प्रकार के होते थे जिनमें
थोड़ा-थोड़ा भेद होता था। प्रबन्ध गीत का प्रचार लगभग चार सौ वर्ष तक रहा। अब भी
कुछ मन्दिरों में कभी कभी पुराने प्रबन्ध सुनने को मिल जाते हैं।
प्रबन्ध के अनन्तर ध्रुवपद गीत का काल आया। यह प्रबन्ध का ही रूपान्तर है। ध्रुवपद में उद्ग्राह के स्थान
पर पहला पद स्थायी कहलाया। इसमें स्थायी का ही एक टुकड़ा बार बार दुहराया जाता है।
दूसरे पद को अंतरा कहते हैं, तीसरे को संचारी और चौथे को आभोग। कभी कभी दो या तीन ही पद के ध्रुवपद मिलते हैं। ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर (15वीं सदी) के द्वारा ध्रुवपद को बहुत प्रोत्साहन मिला। तानसेन ध्रुवपद के ही गायक थे। ध्रुवपद प्रायः
चौताल,
आड़ा चौताल, सूलफाक, तीव्रा, रूपक इत्यादि तालों में गाया
जाता है। धमार ताल में अधिकतर होरी गाई जाती है।
14वीं सदी में अमीर खुसरो ने खयाल या ख्याल
गायकी का प्रारम्भ किया। 15वीं सदी में जौनपुर के शर्की राजाओं के समय में खयाल की
गायकी पनपी,
किन्तु 18वीं सदी में यह मुहम्मदशाह
के काल में पुष्पित हुई। इनके दरबार के दो गायक अदारंग और सदारंग ने सैकड़ों खयालों
की रचना की। खयाल में दो ही तुक होते हैं-स्थायी और अन्तरा। खयाल अधिकतर एकताल, आड़ा चौताल, झूमरा और तिलवाड़ा में गाया जाता
है। इसको अलाप,
तान, बालतान, लयबाँट इत्यादि से सजाते हैं।
आजकल यह गायकी बहुत लोकप्रिय है।
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गुरुवार, 3 मार्च 2016
"गीत को भी जानिए" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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