ज़ज़्बात के बिन, ग़ज़ल हो गयी क्या
बिना दिल के पिघले, ग़ज़ल हो गयी क्या
नहीं कोई मक़सद, नहीं सिलसिला है
बिना बात के ही, ग़ज़ल हो गयी क्या
नहीं कोई कासिद, नहीं कोई चिठिया
बिना कुछ लिखे ही, ग़ज़ल हो गयी क्या
जरूरत के पाबन्द हैं, लोग अब तो
बिना दिल मिले ही, ग़ज़ल हो गयी क्या
नज़र वो नहीं है, नज़ारे नहीं हैं
तन्हाइयों में, ग़ज़ल हो गयी क्या
नहीं कोई माशूक, आशिक नहीं है
तआरुफ़ बिना ही, ग़ज़ल हो गयी क्या
हुनर की जरूरत, न सीरत से मतलब
महज “रूप” से ही,
ग़ज़ल हो गयी क्या
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मंगलवार, 25 अप्रैल 2017
"ग़ज़ल हो गयी क्या" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वाह।
जवाब देंहटाएंbhut badhiya post
जवाब देंहटाएंself publishing India
भावनापूर्ण अभिव्यक्ति। सुंदर
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