दिल्ली के सुलतान को, शायद आया होश।
गजभर लम्बी जीभ अब, बिल्कुल है खामोश।।
--
दिल्ली वालों ने किया, नहीं आप को माफ।
नगरनिगम के क्षेत्र में, किया सूपड़ा साफ।।
--
खिला कमल फिर से वहाँ, गयीं झाड़ुएँ हार।
धीरे-धीरे आप का, खिसक रहा आधार।।
--
कथनी-करनी में दिखा, अलग-अलग जब रंग।
जनता का तब आप से, मोह हो गया भंग।।
--
हाँडी माटी की चले, और काठ की नाव।
देश-काल अनुसार ही, होता अलग चुनाव।।
--
टकरा कर पाषाण से, देख लिया परिणाम।
शीश नवा कर कीजिए, प्रभु को सदा प्रणाम।।
--
अन्ना जी की आड़ ले, बनने चले कबीर।
ज्यादा दिन चलते नहीं, जग में नाटकवीर।।
|
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
Linkbar
फ़ॉलोअर
गुरुवार, 27 अप्रैल 2017
दोहे "मोह हो गया भंग" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-
नये साल की नयी सुबह में, कोयल आयी है घर में। कुहू-कुहू गाने वालों के, चीत्कार पसरा सुर में।। निर्लज-हठी, कुटिल-कौओं ने,...
-
कुहरे ने सूरज ढका , थर-थर काँपे देह। पर्वत पर हिमपात है , मैदानों पर मेह।१। -- कल तक छोटे वस्त्र थे , फैशन की थी होड़। लेक...
-
सपना जो पूरा हुआ! सपने तो व्यक्ति जीवनभर देखता है, कभी खुली आँखों से तो कभी बन्द आँखों से। साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते...
सुन्दर।
जवाब देंहटाएंसामयिक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएं