पैंसठ वर्षों तक रहा, माता जी का साथ।
जब से माँ सुरपुर गयी, मैं हो गया अनाथ।।
जगदम्बा के रूप में, रहती थी हर ठाँव।
माँ के आँचल में मिली, मुझे हमेशा छाँव।।
ममता का जिसकी नहीं, होता कोई अन्त।
उस माँ के दिल में बसा, करुणा-प्यार अनन्त।।
मतलब का संसार है, मतलब के उपहार।
लेकिन दुनिया में नहीं, माँ के जैसा प्यार।।
लालन-पालन में दिया, ममता और दुलार।
बोली-भाषा को सिखा, किया बहुत उपकार।।
होता है सन्तान का, माता से सम्वाद।
माता को करते सभी, दुख आने पर याद।।
नारायण से भी बड़ी, नारी की है जात।
सृजन कर रही सृष्टि का, इसीलिए है मात।।
अब मेरे सिर पर नहीं, माता जी का हाथ।
कैसे अब कहलाउगाँ, माँ के बिना सनाथ।।
चरैवेति है ज़िन्दग़ी, रुकना तो हैं मौत।
सड़ जाता जल धाम भी, जब थम जाता स्रोत।।
कुदरत के इस खेल में, सब मद में बेहोश।
जीते-जी होता नहीं, उच्चारण खामोश।।
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सोमवार, 17 अप्रैल 2017
दोहे ”उच्चारण खामोश" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वाह ... दिल को छु लेने वाले भाव हैं हर दफे में ... माँ की कमी तो हर उम्र में महसूस होती है ...
जवाब देंहटाएंदिनांक 18/04/2017 को...
जवाब देंहटाएंआप की रचना का लिंक होगा...
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...
आप की प्रतीक्षा रहेगी...
नारायण से भी बड़ी, नारी की है जात।
जवाब देंहटाएंसृजन कर रही सृष्टि का, इसीलिए है मात।।
अब मेरे सिर पर नहीं, माता जी का हाथ।
कैसे अब कहलाउगाँ, माँ के बिना सनाथ।
... माँ के आगे सारा संसार बेरौनक है
मर्मस्पर्शी भाव
ममता का जिसकी नहीं, होता कोई अन्त।
जवाब देंहटाएंउस माँ के दिल में बसा, करुणा-प्यार अनन्त।।
हृदय को स्पर्श करती पंक्तियाँ।
नमन।
जवाब देंहटाएं