अमलतास के पीले गजरे, झूमर से लहराते हैं।
लू के गर्म थपेड़े खाकर भी, हँसते-मुस्काते हैं।।
ये मौसम की मार, हमेशा खुश हो कर सहते हैं,
दोपहरी में क्लान्त पथिक को, छाया देते रहते हैं,
सूरज की भट्टी में तपकर, कंचन से हो जाते हैं।
लू के गर्म थपेड़े खाकर भी, हँसते-मुस्काते हैं।।
उछल-कूद करते मस्ती में, गिरगिट और गिलहरी भी,
वासन्ती आभास कराती, गरमी की दोपहरी भी,
प्यारे-प्यारे सुमन प्यार से, आपस में बतियाते हैं।
लू के गर्म थपेड़े खाकर भी, हँसते-मुस्काते हैं।।
लुभा रहे सबके मन को, जो आभूषण तुमने पहने,
अमलतास तुम धन्य, तुम्हें कुदरत ने बख्शे हैं गहने,
सड़क किनारे खड़े तपस्वी, अभिनव “रूप” दिखाते हैं।
लू के गर्म थपेड़े खाकर भी, हँसते-मुस्काते हैं।।
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मंगलवार, 25 अप्रैल 2017
गीत "अमलतास के झूमर" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 26 अप्रैल 2017 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना, आभार। 'एकलव्य'
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर गीत।
जवाब देंहटाएंप्रकृति से सीख देता है हर परिस्थिति में कैसे खुश रहना चाहिए
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना