नहीं हुआ है देश
में, अभी शीत का अन्त।
कुहरे से इस साल
तो, शीतल हुआ बसन्त।।
कुहरे-सरदी ने
किये, कीर्तिमान सब ध्वस्त।
सूरज की गति
देखकर, हुए हौसले पस्त।।
नहीं दिखाई दे
रहा, वासन्ती संगीत।
कुहरे से इस साल
तो, है सूरज भयभीत।।
सरदी हाड़ कँपा
रही, बिगड़ गया परिवेश।
उत्तर भारत में अभी,
कुहरे का है क्लेश।।
शीतलता की मार को,
लोग रहे हैं झेल।
नहीं समझ में आ
रहा, मौसम का ये खेल।।
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सोमवार, 29 जनवरी 2018
दोहे "है सूरज भयभीत" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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कुहरे ने सूरज ढका , थर-थर काँपे देह। पर्वत पर हिमपात है , मैदानों पर मेह।१। -- कल तक छोटे वस्त्र थे , फैशन की थी होड़। लेक...
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सपना जो पूरा हुआ! सपने तो व्यक्ति जीवनभर देखता है, कभी खुली आँखों से तो कभी बन्द आँखों से। साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते...
नहीं दिखाई दे रहा, वासन्ती संगीत।
जवाब देंहटाएंकुहरे से इस साल तो, है सूरज भयभीत।।
हालात अभी भी ऐसे ही हैं.....
सामयिक और वास्तविक....
मौसम भी इंसान के तरह अजीबोगरीब होता जा रहा है
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति