चौकीदारी मिली खेत की, अन्धे-गूँगे-बहरों को। चोटी पर बैठे मचान की, लगा रहे हैं पहरों को।। घात लगाकर मित्र-पड़ोसी, धरा हमारी लील रहे, पर बापू के मौन-मनस्वी, देते उनको ढील रहे, बोल न पाये, ना सुन पाये, ना पढ़ पाये चेहरों को।। चोटी पर बैठे मचान की, लगा रहे हैं पहरों को।। कैसे भरे तिजोरी अपनी, दिवस-रैन ये सोच रहे, अपने पैने नाखूनों से, सुमनो को सब नोच रहे, गाँवों को वीरान बनाकर, रौशन करते शहरों को। चोटी पर बैठे मचान की, लगा रहे हैं पहरों को।। चीर पर्वतों की छाती को, बहती चंचल धारा है, गहरी नदिया दूर किनारा, कोई नहीं सहारा है, चप्पू लेकर दूर खड़े ये, चले थामने लहरों को। चोटी पर बैठे मचान की, लगा रहे हैं पहरों को।। |
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मंगलवार, 24 अगस्त 2021
गीत "लगा रहे हैं पहरों को" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आदरणीय शास्त्री जी,प्रणाम !
जवाब देंहटाएंआज के समय का सटीक चटरन करती सारगर्भित रचना, बहुत शुभकामनाएँ आपको।
वंदन
जवाब देंहटाएंचप्पू लेकर दूर खड़े ये,
चले थामने लहरों को।
चोटी पर बैठे मचान की,
लगा रहे हैं पहरों को।।
गीत में शानदार व्यंग्य
उम्दा रचना
सुंदर सटीक व्यंग गीत विसंगतियों का।
जवाब देंहटाएंसादर।
क्या खूब कहा है । बहुत ही बढ़िया ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंवाह!बहुत ख़ूब कहा सर।
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत सुन्दर रचना ,अच्छा व्यंग्य , प्रणाम शास्त्री जी, राधे राधे।
जवाब देंहटाएं