-- श्रमिकों से जिनका नहीं, कोई भी सम्बन्ध। श्रमिक-दिवस पर लिख रहे, वो भी शोध-प्रबन्ध।। -- सुबह दस बजे जागते, सोते आधी रात। खाते माल हराम का, करते श्रम की बात।। -- काँटे और गुलाब का, कैसा है संयोग। अन्तर आलू-आम का, नहीं जानते लोग।। -- नहीं गये जो बाग में, देखा नहीं बसन्त। वही बने हैं आज भी, मजदूरों के सन्त।। -- जिसने झेली ही नहीं, शीत-ग्रीष्म-बरसात। वो जननायक कर रहा, मजदूरों की बात।। -- सस्ता बिका किसान का, गेहूँ-चावल-दाल। जाते ही बाजार में, आ जाता भूचाल।। -- महँगी बहुत शराब क्यों, कोई नहीं जवाब। क्यों होती श्रमवीर की, हालत यहाँ खराब।। -- सत्ता में आये भले, कोई भी सरकार। कोई श्रमिक-किसान का, नहीं करे उपकार।। |
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सोमवार, 1 मई 2023
दोहे "श्रमिक-दिवस" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सच धरातल पर उतर कर ही कोई मजदूर क्या होते हैं, उन्हें समझ सकते हैं बहुत हद तक ,, जितना लिखना सरल होता है उतना उन्हें जीना कठिन। . बहुत अच्छी सामयिक चिंतनशील रचना
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