नभ से आग बरस रही, बढ़ा धरा का ताप। व्याकुल होकर जीव अब, करने लगे विलाप।। -- जीना दूभर हो गया, गरमी है विकराल। नद-नाले सूखे पड़े, सूख गये हैं ताल।। -- तापमान इतना बढ़ा, एसी-कूलर फेल। कंकरीट बो कर मनुज, रहा नतीजा झेल।। -- घटते जाते वृक्ष हैं, बहुत बुरा है हाल। शीतल मन्द समीर का, है इसलिए अकाल।। -- मानव जब से कर रहा, कुदरत से खिलवाड़। दरक रहे भूचाल से, तब से रोज पहाड़।। -- खेती वाली भूमि पर, बनने लगे मकान। लुप्त हो रहे गाँव से, चरागाह-खलिहान।। -- कुदरत के हर खेल में, मानव खाता मात। कल मैंने दोहे लिखे, आज हुई बरसात।। -- |
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गुरुवार, 15 जून 2023
दोहे "गरमी है विकराल" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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