“ग़ज़लियात-ए-रूप” ‘चेहरा चमक उठा, दमक उठा है रूप भी’ संसार की समस्त काव्यविधाओं में ग़ज़ल का एक विशिष्ट स्थान है। अपनी उत्स भूमि से उर्वरा लेकर यह काव्य रूप विभिन्न भाषाओं के साहित्य का एक ऐसा अहम अंग बन गया है जिसे ‘साधारण’ और ‘आम’ कहकर अनदेखा नहीं किया जा सकता है। यदि हिन्दी साहित्य की बात करें तो हिन्दी ग़ज़ल अपने आप में एक सुदृढ़ काव्यरूप बन चुका है जिसने अपने व्यक्तित्व से देश, काल, समाज की सच्चाइयों से जनमानस को अत्यन्त प्रभावित किया है। हिन्दी के अधिकांश कवियों ने ग़ज़ल में हाथ आजमाया है। जिसमें ‘रसा’ उपनाम से लिखनेवाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से लेकर निराला, शमशेर बहादुर सिंह, बलवीर सिंह रंग, दुष्यन्तकुमार, राजेश ऐरी, बल्ली सिंह चीमा, ज्ञानप्रकाश विवेक, जहीर कुरैशी और अदम गोंडवी जैसे नाम सदैव स्मरण किये जायेंगे। मेरे समक्ष ग़ज़लों की एक पांडुलिपि है-‘ग़ज़लियात-ए-रूप’। इसके रचयिता हैं डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’। इस पुस्तक का प्रकाशनपूर्व पाठक होना मेरे लिए सुखकर है। किसी भी नई किताब का आगमन निश्चितरूप से इस संसार को देखने के लिए एक नई खिड़की का खुलना होता है, क्योंकि कवि/लेखक की निगाह वहाँ तक पहुँचती है जहाँ कि साधारणजन की सोच का संचरण भी प्रायः नहीं होता है। इस पुस्तक में कवि ने अपनी सोच-समझ और संवेदना के विभिन्न आयामों को ग़ज़लों के माध्यम से अपनी वाणी दी है साथ ही उसने नकली कवियों से भी सचेत रहने की हिदायत दी है जो कि कविता के प्रति प्रतिब( नहीं हैं और न ही उन्हें छन्दशास्त्रा का ज्ञान है- ‘‘हुनर की जरूरत न सीरत से मतलब महज रूप से ही ग़ज़ल हो गयी क्या’’ ‘ग़ज़लियात-ए-रूप’ की ग़ज़लों से एक पाठक के रूप में गुजरते हुए मुझे इस बात का बार-बार भान होता है कि ‘रूप’ के पास एक विपुल जीवनानुभव है और चिकित्सा जैसे पेशे का सफल निर्वाह करते हुए, राजनीतिक सक्रियता के बल पर उन्होंने एक दृष्टि अर्जित की है जिसका दर्शन यह पुस्तक सहज ही कराती है। हमारे परिवेश के कार्यकलाप की विविधवर्णी छवियाँ इस संग्रह की ग़ज़लों में सहज ही देखी जा सकती है- ‘‘यूँ अपनी इबादत का दिखावा न कीजिए ईमान भी तो लाइए अपने हुजूर पे’’ -- ‘‘कहीं से कुछ उड़ा करके, कहीं से कुछ चुरा करके सुनाता जो तरन्नुम में, वही शायर कहाता है’’ -- ‘‘सोने की चिड़िया इसलिए कंगाल हो गयी कुदरत की सल्तनत के इशारे बदल गये’’ प्रस्तुत ग़ज़ल संग्रह अपनी भाषा के नये तेवर और विचार की वैविध्यपूर्ण प्रस्तुति के कारण हिन्दी साहित्य के पटल पर अपनी उपस्थिति का अहसास प्रभावपूर्ण तरीके से करायेगा ऐसा मेरा विश्वास है। अशेष शुभकामनाओं के साथ- डॉ. सिद्धेश्वर सिंह एसोशियेट प्रोफेसर (हिन्दी) राजकीय महाविद्यालय, बनबसा (चम्पावत) |
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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मंगलवार, 27 जून 2023
‘ग़ज़लियात-ए-रूप’ "रूप के पास एक विपुल जीवनानुभव है" (डॉ. सिद्धेश्वर सिंह)
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