-- फालतू की ऐँठ में, अकड़ा हुआ है आदमी। मज़हबों की कैद में, जकड़ा हुआ है आदमी।। -- सभ्यता की आँधियाँ, जाने कहाँ ले जायेंगी, वासना के वेग ने, पकड़ा हुआ है आदमी। -- छिप गयी है अब हकीकत, कलयुगी परिवेश में, रोटियों के देश में, टुकड़ा हुआ है आदमी। -- हम चले जब खोजने, उसको गली-मैदान में ज़िन्दग़ी के खेत में, उजड़ा हुआ है आदमी। -- बिक रही है कौड़ियों में, देख लो इंसानियत, आदमी की पैठ में, बिगड़ा हुआ है आदमी। -- “रूप” तो है इक छलावा, रंग पर मत जाइए, नगमगी परिवेश में, पिछड़ा हुआ है आदमी। -- |
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शुक्रवार, 30 अगस्त 2024
ग़ज़ल "अकड़ा हुआ है आदमी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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