हिन्दी
का अवसान है, अँगरेजी की भोर।
इसीलिए
तो देश में, हिन्दी है कमजोर।।
हम
हिन्दी के जिगर में, घोंप रहे शमशीर।
अपनी
भाषा का स्वयं, खींच रहे हम चीर।।
भारत
को अब इण्डिया, हम सब रहे पुकार।
हिन्दी
की हम एक दिन, करते जय-जयकार।
मत
हिन्दी में माँगकर, जीता आम चुनाव।
फिर
संसद में बैठकर, बदल गये सब भाव।।
अफसरशाही
ने किया, हिन्दी को बरबाद।
पखवाड़े
भर के लिए, हिन्दी आती याद।।
अँगरेजी
इस्कूल अब, लगते हैं मकरन्द।
हिन्दी
विद्यालय हुए, इसीलिए तो बन्द।।
निर्भय
होकर खोदते, समरसता की मूल।
अब
पश्चिम की सभ्यता, परस रहे इस्कूल।।
हिन्दी
भी अच्छी नहीं, अँगरेजी है गोल।
पावन-पावन
नीर में, भाँग रहे हैं घोल।।
सिसक
रही माँ भारती, बिलख रहे हैं गीत।
कोने
में वीणा पड़ी, लगती कालातीत।।
हिन्दी
की गाथा नहीं, बिगड़ गये हैं बोल।
भाषा
की तो वर्तनी, आज हो गयी गोल।।
कुछ
काले अँगरेज ही, चला रहे सरकार।
इसीलिए
तो हो रही, हिन्दी की है हार।।
अँगरेजी
के दंश का, लगा देश को रोग।
कहने
को आजाद हैं, भारत के हम लोग।।
जगत
गुरू का रूप तो, आज हुआ विकराल।
आशाओं
पर जी रहे, कब सुधरेंगे हाल।।
आयेंगे
अच्छे दिवस, मन में है सन्तोष।
जय
हिन्दी, जय नागरी, अपना है उद्-घोष।।
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बुधवार, 13 सितंबर 2017
चौदह दोहे "जय हिन्दी-जय नागरी" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वाह्ह्ह....लाज़वाब👌
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14-09-17 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2727 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हमारी मातृभाषा की इस दुर्दशा के लिए हम ही जिम्मेदार हैं।आपने इस बात को बहुत ही अच्छे तरीके से बताने की कोशिश की है।
जवाब देंहटाएंVisit us at:Www.manziltakjanahai.com