जिनका पेटभरा हो उनको, भोजन नहीं कराऊँगा।
जिस महफिल में उल्लू बोलें, वहाँ नहीं मैं गाऊँगा।।
महाइन्द्र की पंचायत में, भेदभाव की है भाषा,
अपनो की महफिल में, बौनी हुई सत्य की परिभाषा,
ऐसे सम्मेलन में, खुद्दारों का होगा मान नहीं,
नहीं टिकेगी वहाँ सरलता, ठहरेंगे विद्वान नही,
नोक लेखनी की अपनी में, भाला सदा बनाऊँगा।
जिस महफिल में उल्लू बोलें, वहाँ नहीं मैं गाऊँगा।।
जिस सरिता में बहती प्रतिपल, व्यक्तिवाद हो धारा,
उससे लाख गुना अच्छी है, रत्नाकर की जल खारा,
नहीं पता था अमृत के घट में, होगा विष भरा हुआ,
आतंकों की परछायी से, राजा होगा डरा हुआ,
जिस व्यंजन को बाँटे अन्धा, उसे नहीं मैं खाऊँगा।
जिस महफिल में उल्लू बोलें, वहाँ नहीं मैं गाऊँगा।।
उस पथ को कैसे भूलूँगा, जिस पथ का निर्माता हूँ,
मैं चुपचाप नहीं बैठूँगा, माता का उद्गाता हूँ,
ऊसर धरती में भी मैंने, बीज आस के बोए हैँ,
शब्दों की माला में, नूतन मनके रोज पिरोए हैं,
खर-पतवार हटा उपवन में, पौधे नये लगाऊँगा।
जिस महफिल में उल्लू बोलें, वहाँ नहीं मैं गाऊँगा।।
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बहुत खूब।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार १६ अक्टूबर 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com आप सादर आमंत्रित हैं ,धन्यवाद! "एकलव्य"
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूब
जवाब देंहटाएंझकझोरकर आत्मसम्मान को जगा देने वाली रचना । साझा करने हेतु सादर आभार । प्रणाम है आपको एवं आपकी लेखनी को आदरणीय !
जवाब देंहटाएंऊसर धरती में भी मैंने, बीज आस के बोए हैँ,
जवाब देंहटाएंशब्दों की माला में, नूतन मनके रोज पिरोए हैं,
खर-पतवार हटा उपवन में, पौधे नये लगाऊँगा।
जिस महफिल में उल्लू बोलें, वहाँ नहीं मैं गाऊँगा।।
सुंदर नैतिक संकल्पों और आत्मसम्मान को जगाती रचना एक संवेदनशील स्वाभिमानी कवि का आशा भरा क्रन्तिगीत है | आज देश को ऐसे ही स्वाभिमानी उद्घोष की आवश्यकता है | आपको सादर अनेकानेक शुभकामनाएं आदरणीय | आपकी लेखनी का ओज और प्रवाह अमर हो !!!!!!!!!!!