मित्रों!
पिछले वर्ष 16 अक्तूबर, 2016 को
निम्न गीत लिखा था,
परन्तु इस गीत की कुछ पंक्तियों में
थोड़ा बदलाव करके
बहुत से लोगों ने इस गीत को
अपने नाम से यू-ट्यूब पर
लगा दिया है।
देश के धन को देश में रखना,
बहा न देना नाली में।
मिट्टी के ही दिये जलाना,
अबकी बार दिवाली में।।
बने जो अपनी माटी से
वो दीप बिकें बाजारों में,
भरी हुई है वैज्ञानिकता.
अपने सब त्यौहारों में,
राष्ट्र हितों का गला घोंटकर
छेद न करना थाली में।
मिट्टी के ही दिये जलाना,
अबकी बार दिवाली में।।
त्यौहारों पर अब गरीब की,
जेब कभी ना खाली हो।
झिलमिल नन्हें दीप जलें जब,
काली नहीं दिवाली हो।
देश की सीमा रहे सुरक्षित
चूक न हो रखवाली में।
मिट्टी के ही दिये जलाना,
अबकी बार दिवाली में।।
रहे देश की दौलत
अपने ही लोगों की झोली में।
मिलता है आनन्द हमेशा,
अपनी ही रंगोली में।
योगदान है सबका होता
जनता की खुशहाली में।
मिट्टी के ही दिये जलाना,
अबकी बार दिवाली में।।
वस्तु स्वदेशी अपनाने का
आओ हम सब प्रण कर लें,
अपने उत्पादन से अपना,
दामन खुशियों से भर लें।
गले मिलें सब लोग देश के,
होली, ईद-दिवाली में।
मिट्टी के ही दिये जलाना,
अबकी बार दिवाली में।।
|
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शनिवार, 14 अक्तूबर 2017
गीत "मिट्टी के ही दिये जलाना" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जवाब देंहटाएंपत्थर के घर में रह के पत्थर हुआ इंसान।
चमक-दमक के शहर में क्या मिट्टी की पहचान ।
सुन्दर।
जवाब देंहटाएंसटीक और सार्थक रचना
जवाब देंहटाएंवाह !
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब!
सामयिक संदेश और सार्थक आह्वान।
प्रेरक प्रस्तुति।