दोहों के ही योग से, बनता दोहागीत।
मर्म समझ लो प्यार का, ओ मेरे मनमीत।।
ढाई आखर में छिपा, दुनियाभर का सार।
जो नैसर्गिकरूप से, उमड़े वो है प्यार।।
प्यार नहीं है वासना, ये तो है उपहार।
दिल से दिल का मिलन ही, इसका है आधार।।
प्यारभरे इस खेल में, नहीं हार औ’ जीत।
मर्म समझ लो प्यार का, ओ मेरे मनमीत।१।
माँगे से मिलता नहीं, कभी प्यार का दान।
छिपा हुआ है प्यार में, जीवन का विज्ञान।
विरह तभी है जागता, जब दिल में हो आग।
विरह-मिलन के मूल में, होता है अनुराग।।
होती प्यार-दुलार की, बड़ी अनोखी रीत।
मर्म समझ लो प्यार का, ओ मेरे मनमीत।२।
जीवनभर बहती रहे, बरसाओ वो धार।
सिखलाओ संसार को, क्या होता है प्यार।।
दिल से मत तजना कभी, प्रीत-रीत उद्गार।
सारस जीवनभर करे, सच्चा-सच्चा प्यार।।
मन की सच्ची लगन ही, कहलाती है प्रीत।।
मर्म समझ लो प्यार का, ओ मेरे मनमीत।३।
कंकड़-काँटों से भरी, प्यार-प्रीत की राह।
बन जाती आसान ये, मन में हो जब चाह।।
लेकर प्रीत कुदाल को, सभी हटाना शूल।
धैर्य और बलिदान से, खिलने लगते फूल।।
सरगम के सुर जब मिलें, बजे तभी संगीत।
मर्म समझ लो प्यार का, ओ मेरे मनमीत।४।
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सोमवार, 9 अप्रैल 2018
दोहागीत "खिलने लगते फूल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत बहुत सुंदर आदरणिये जी
जवाब देंहटाएंवाह बहुत सुन्दर।
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