अनुभव पर मेरे मुझे, रहता सदा यकीन।
सागर की हर बूँद का, पानी है नमकीन।।
देशद्रोह-अलगाव की, जहाँ भड़कती आग।
उस केसर के खेत में, लगे खून के दाग।।
मन को अब भाती नहीं, बहती हुई बयार।
इसीलिए मैली हुई, गंगा जी की धार।।
खूनी पंजे देखकर, सहमे हुए कपोत।
खुद को सूरज कह रहे, अब छोटे खद्योत।।
निर्धन को धनवान सा, सुलभ सदा हो न्याय।
नहीं किसी के साथ हो भेद-भाव अन्याय।।
छम-छम पानी बरसता, बादल करते शोर।
हरियाली बिखरी हुई, धरती पर चहुँ ओर।।
मन को सुमन बनाइए, रखिए सरल सुभाव।
कोमल होने चाहिएँ, मानस के अनुभाव।।
कभी बन्द मत कीजिए, आशाओं के द्वार।
मजबूती से थामना, लहरों में पतवार।।
चोटी-बिन्दी-मेंहदी, आपस में बतियाय।
विरह और अनुराग में, सुहागिनें बौराय।।
नहीं हमें कुछ चाहिए, शासन में अधिकार।
हम तो करना जानते, जन-मानस को प्यार।। |
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शुक्रवार, 13 जुलाई 2018
दोहे "सहमे हुए कपोत" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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