आये थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास।
कैसे जीवन में उगे, हास और परिहास।।
बन्धन आवागमन का, नियम बना है खास।
अमर हुआ कोई नहीं, बता रहा इतिहास।।
निर्बल का मत कीजिए, कभी कहीं उपहास।
आँधी में तूफान में, जीवित रहती घास।।
तुलसी-सूर-कबीर की, मीठ-मीठी तान।
निर्गुण-सगुण उपासना, भूल गया इंसान।।
ग्वाले मक्खन खा रहे, मोहन की ले ओट।
सत्ता के तालाब में, मगर रहे हैं लोट।।
पोथीबुक पर अधिकतर, बातें हैं अश्लील।
भोली चिड़ियों को यहाँ, लील रही हैं चील।।
मुखपोथी के सामने, बड़े-बड़े लाचार।
मतलब के सब लोग हैं, मतलब का सब प्यार।। |
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शनिवार, 7 जुलाई 2018
दोहे "ओटन लगे कपास" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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ग्वाले मक्खन खा रहे, मोहन की ले ओट।
जवाब देंहटाएंसत्ता के तालाब में, मगर रहे हैं लोट।।
मुखपोथी के सामने, बड़े-बड़े लाचार।
मतलब के सब लोग हैं, मतलब का सब प्यार।।
बहुत सटीक
ग्वाले मक्खन खा रहे, मोहन की ले ओट।
जवाब देंहटाएंसत्ता के तालाब में, मगर रहे हैं लोट।।
ठगबंधन है बन रहा ,गठबंधन की ओट ,
चोर ठगु सब साथ हैं ,लकुटी बिना लंगोट।
जवाब देंहटाएंग्वाले मक्खन खा रहे, मोहन की ले ओट।
सत्ता के तालाब में, मगर रहे हैं लोट।।
ठगबंधन है बन रहा ,गठबंधन की ओट ,
चोर ठगु सब साथ हैं ,लकुटी बिना लंगोट।
शास्त्रीजी बराबर आप हमारी रचनाओं को पनाह दे रहें हैं चर्चा मंच पर जबकि कई तकनिकी कारणों से मैं कबीरा खड़ा बाज़ार या फिर veerubhai1947.blogspot.comसे टिपण्णी नहीं कर पाता हूँ। शुक्रिया आपका लख लख.
सुन्दर
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