माटी जैसी हो वही, देता है आकार।
कितने श्रम पात्र को, गढ़ता रोज कुम्हार।।
शब्दों में अपने नहीं, करता कभी कमाल।
कच्ची माटी जब मिले, दूँ साँचों में ढाल।।
चिन्तन-मन्थन के लिए, मिलता कच्चा माल।
रोज-रोज लिख दीजिए, सच्चा-सच्चा हाल।।
ठोकर खा कर सभी को, मिल जाती है राह।
लेकिन होनी चाहिए, मन में सच्ची चाह।।
झंझावातों में सभी, बने हुए हैं बैल।
मंजिल तब कैसे मिले, जब मन में हो मैल।।
कंकड़-काँटों से भरी, प्यार-प्रीत की राह।
बन जाती आसान तब, जब मन में हो चाह।।
लोकतन्त्र में न्याय से, अक्सर होती भूल।
कौआ मोती निगलता, हंस फाँकते धूल।।
जिनको प्यार-दुलार से, पाल रहे हों शूल।
सबके मन को मोहते, उपवन के वो फूल।। |
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गुरुवार, 5 जुलाई 2018
प्रकाशन "शैल सूत्र पत्रिका में मेरे दोहे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सपना जो पूरा हुआ! सपने तो व्यक्ति जीवनभर देखता है, कभी खुली आँखों से तो कभी बन्द आँखों से। साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते...
काश ! तथाकथित नेता भी इस पर ध्यान दे सकें !
जवाब देंहटाएंशब्दों के तो आप भगवान् हैं
जवाब देंहटाएंदोहे लाजवाब हैं
सब एक से बढ़ कर एक